छत्तीसगढ़ की सीमा में अमरकंटक के ठीक पहले कबीर चबूतरा है । इस स्थल का महत्त्व आज भुला दिया गया है। अमरकंटक की वादियों का यह स्थल प्राकृतिक,आध्यात्मिक के साथ साथ ऐतिहासिक महत्त्व का भी है।
इस स्थान के बारे में बताया जाता है कि संत कबीर ने इस स्थान पर गुरुनानक से संवाद किया था। यहाँ एक कुटिया जिसमे कबीर के प्रतिक चक्की,पुराने सामान चूल्हे वगैरह रखे हुए हैं,दूधिया पानी का सोता है जो छोटा सा झरना भी बनाता है,बरगद का बहुत पुराना विशाल वृक्ष जिसके छाया में संतों की तप की अनुभूति होती है। भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का प्रतिक यह स्थल उतनी ही उपेक्षित है जितनी कि संत कबीर की शिक्षाएं।
कबीरदास जी संत तो थे ही लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के परिप्रेक्ष्य में कुरीतियों को चोट करने वाले वैज्ञानिक सोच केे समाज सुधारक थे सही मायने में संत कबीर आज से 500 वर्षों पहले आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले महान दार्शनिक शिक्षक थे। उनकी शिक्षाएं या सन्देश बहुत ही सहज सरल लोकप्रिय सधुक्कड़ी अंदाज में सुग्राह्य किन्तु अन्धविश्वास पर तीव्र प्रहार करने वाले थे।
यह विश्वास करना बहुत कठिन है कि सन्त कबीर पढ़े लिखे नहीं थे । यहाँ कॉपरनिकस को न्यूटन तो आइंस्टीन को रामानुजन चुनौती देते दिखायी देते हैं विज्ञान के सिद्धान्त भी नए शोध के साथ बदल रहे हैं । लेकिन संत कबीर के दृष्टान्त सभी काल में सार्वभौमिक हैं। उनकी शिक्षाये आज भी प्रासंगिक हैं जितनी तब थी जब संत कबीर थे।
उन्होंने सहज कविता के माध्यम से साम्प्रदायिकता आडम्बर जात पात जैसी कुरीतियों पर तीखा प्रहार किया है। फ़्रांस की क्रांति का सूत्र ' स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व ' से कहीं पहले उन्होंने इस वाक्य के फलसफे का प्रवर्तन कर दिया था। संत कबीर को भक्तिकाल के कवि के रूप में आज सीमित कर दिया गया है । हम अपनों की बात ही नहीं समझ पाये जो हमारी ही लोकभाषा और बोली में थी और जब विदेशियों ने इसे अंग्रेजी में एजुकेशन सोशल जस्टिस कहा तब इसे हम कोई आधुनिक विद्या मानकर समझने लगे। अपने सधुक्कड़ी का हम वैसे ही सम्मान नहीं कर रहे हैं उसे पुरातन मानते है जबकि वह अंग्रेजी विद्या से कहीं अधिक वैज्ञानिक आधुनिक सार्वभौमिक है वह सार दर्शन, प्राकृतिक जीवन,योग,वैज्ञानिक शोध,वैदिक गणित से परिपूर्ण है। दरअसल हम भारतीय संस्कृति को हिंदुत्व के चश्मे से देखते हैं और हमारे अतीत के ज्ञान को कट्टरता का ढिंढोरा पिट कर दबा देते हैं। खैर थोड़ा विषयांतर हो गया ।
साम्प्रदायिकता के इस अंधकार को दूर करने के लिए आज फिर कबीर की वाणी ही प्रासंगिक है । लेकिन उन्हें भी एक पंथ विशेष में बांध दिया गया है। जाति पांति के प्रबल विरोधी कबीरदास जी को मानने वाले आज कुछ जाति विशेष में ही सीमित हैं यह बड़ी विडम्बना है।
उनकी वाणी आज वैसे ही उपेक्षित है जैसे यह स्थान । अमरकंटक आने वाले बहुत कम यात्री यहाँ आते हैं । यहाँ न तो जनता का ध्यान है न ही सरकार का । मेरा उद्देश्य इस कबीर चबूतरा को सब माने ऐसा नहीं है । दरअसल संत कबीर को लोग माने उससे कहीं अधिक यह आवश्यक है कि लोग उन्हें जानें।
कल कबीर जयंती थी सभी को शुभकामनायें एवम् बधाई।
# फ़ेसबुक पर कबीर जयन्ती के अवसर पर लिखा गया मेरा पोस्ट...
इस स्थान के बारे में बताया जाता है कि संत कबीर ने इस स्थान पर गुरुनानक से संवाद किया था। यहाँ एक कुटिया जिसमे कबीर के प्रतिक चक्की,पुराने सामान चूल्हे वगैरह रखे हुए हैं,दूधिया पानी का सोता है जो छोटा सा झरना भी बनाता है,बरगद का बहुत पुराना विशाल वृक्ष जिसके छाया में संतों की तप की अनुभूति होती है। भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का प्रतिक यह स्थल उतनी ही उपेक्षित है जितनी कि संत कबीर की शिक्षाएं।
कबीरदास जी संत तो थे ही लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के परिप्रेक्ष्य में कुरीतियों को चोट करने वाले वैज्ञानिक सोच केे समाज सुधारक थे सही मायने में संत कबीर आज से 500 वर्षों पहले आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले महान दार्शनिक शिक्षक थे। उनकी शिक्षाएं या सन्देश बहुत ही सहज सरल लोकप्रिय सधुक्कड़ी अंदाज में सुग्राह्य किन्तु अन्धविश्वास पर तीव्र प्रहार करने वाले थे।
यह विश्वास करना बहुत कठिन है कि सन्त कबीर पढ़े लिखे नहीं थे । यहाँ कॉपरनिकस को न्यूटन तो आइंस्टीन को रामानुजन चुनौती देते दिखायी देते हैं विज्ञान के सिद्धान्त भी नए शोध के साथ बदल रहे हैं । लेकिन संत कबीर के दृष्टान्त सभी काल में सार्वभौमिक हैं। उनकी शिक्षाये आज भी प्रासंगिक हैं जितनी तब थी जब संत कबीर थे।
उन्होंने सहज कविता के माध्यम से साम्प्रदायिकता आडम्बर जात पात जैसी कुरीतियों पर तीखा प्रहार किया है। फ़्रांस की क्रांति का सूत्र ' स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व ' से कहीं पहले उन्होंने इस वाक्य के फलसफे का प्रवर्तन कर दिया था। संत कबीर को भक्तिकाल के कवि के रूप में आज सीमित कर दिया गया है । हम अपनों की बात ही नहीं समझ पाये जो हमारी ही लोकभाषा और बोली में थी और जब विदेशियों ने इसे अंग्रेजी में एजुकेशन सोशल जस्टिस कहा तब इसे हम कोई आधुनिक विद्या मानकर समझने लगे। अपने सधुक्कड़ी का हम वैसे ही सम्मान नहीं कर रहे हैं उसे पुरातन मानते है जबकि वह अंग्रेजी विद्या से कहीं अधिक वैज्ञानिक आधुनिक सार्वभौमिक है वह सार दर्शन, प्राकृतिक जीवन,योग,वैज्ञानिक शोध,वैदिक गणित से परिपूर्ण है। दरअसल हम भारतीय संस्कृति को हिंदुत्व के चश्मे से देखते हैं और हमारे अतीत के ज्ञान को कट्टरता का ढिंढोरा पिट कर दबा देते हैं। खैर थोड़ा विषयांतर हो गया ।
साम्प्रदायिकता के इस अंधकार को दूर करने के लिए आज फिर कबीर की वाणी ही प्रासंगिक है । लेकिन उन्हें भी एक पंथ विशेष में बांध दिया गया है। जाति पांति के प्रबल विरोधी कबीरदास जी को मानने वाले आज कुछ जाति विशेष में ही सीमित हैं यह बड़ी विडम्बना है।
उनकी वाणी आज वैसे ही उपेक्षित है जैसे यह स्थान । अमरकंटक आने वाले बहुत कम यात्री यहाँ आते हैं । यहाँ न तो जनता का ध्यान है न ही सरकार का । मेरा उद्देश्य इस कबीर चबूतरा को सब माने ऐसा नहीं है । दरअसल संत कबीर को लोग माने उससे कहीं अधिक यह आवश्यक है कि लोग उन्हें जानें।
कल कबीर जयंती थी सभी को शुभकामनायें एवम् बधाई।
# फ़ेसबुक पर कबीर जयन्ती के अवसर पर लिखा गया मेरा पोस्ट...