मंगलवार, 4 जुलाई 2017

कान्हा किसली..... जंगल सफ़ारी.... कान्हा नेशनल पार्क.... बाघ और बारहसिंगा

कान्हा किसली  ..... का नाम सुनते ही मन मे बाघ और जंगल का विचार आने लगता है.... यह वही कान्हा किसली है जो  रुड्यार्ड किपलिन्ग के जंगल बुक का प्रेरणा स्रोत है.... मोगली बघीरा शेरखान इन्ही जंगलो से प्रेरित पात्र हैं


....रुड्यार्ड की जंगल बुक 1894 मे आयी थी. मध्य प्रदेश के सिवनी क्षेत्र मे भेडियो के बीच एक बालक के मिलने की खबर से प्रभावित होकर रुड्यार्ड ने अपनी यह महान कहानी रची थी ....मोगली की कहानी, बाघो का रोमांच और घने जंगल के आकर्षण ने अंग्रेजो को बहुत प्रभावित किया.... सतपुड़ा मैकल के घाट पहाड़... बान्स के झुरमुट, घास के मैदान ,विशाल साल के पेडो और विविध जीव जंतुओं का सम्मिश्रण के साथ बाघ की उपस्थिति का एहसास अपने आप मे अद्भुत है .



   अंग्रेजो ने इसे मध्य भारत का प्रिन्सेस क्षेत्र कहा है. यहाँ के रहस्य से भरी जन्गलो और कहानियों से जार्ज पन्चम भी बहुत प्रभावित हुये. ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पन्चम जब भारत आये तो उनके जन्गल  भ्रमण कार्यक्रम मे बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले के अलावा मध्य प्रान्त  मुख्य तौर  पर कान्हा किसली को ही रखा गया था.
        यहाँ कान्हा और सूपखार मे जार्ज पन्चम के रुकने के लिये रेस्ट हाउस बनाये गये थे... इनमे सूपखार के जंगल मे जार्ज पन्चम के लिये निर्मित 100 से भी ज्यादा वर्ष पुरानी मिट्टी के  दीवार और घास की छत वाली रेस्ट हाउस आज भी आकर्षित करती है. (चित्र मे देखें) इसे आकर्षक बनाने के लिये चीड व पाइन के वृक्ष इसके आस पास लगाये गये थे जिसे आज भी देखा जा सकता है

सूपखार का रेस्ट हाउस जो ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम के लिये बनाया गया था.

   
        बिलासपुर से कान्हा किसली जाने का रास्ता ही अपने आप में रोमांचक है...बिलासपुर से बाहर निकलते ही धीरे धीरे जगहो के साथ भौगोलिक प्राकृतिक परिवर्तन नजर आने लगते हैं....कानन पेन्डारी के चिड़िया घर से कान्हा के उन्मुक्त जंगल के बीच का सफ़र भी परत दर परत कई कहानियाँ  बताती हैं... रास्ते मे हरे भरे खेत और उनकी मिट्टी को देखने से भी आप कान्हा के कान्हा होने के अर्थ को समझ सकते हैं . खेतों मे धान के स्थान पर गेहूँ फिर दलहन और गन्ने की फ़सल नजर आने लगती है. मिट्टी का रंग गहरा होते जाता है और कन्हार (काली मिट्टी का स्थानीय नाम कन्हार) से ही कान्हा का नामकरण होना बताया जाता है...
     इसी प्रकार मैदानो से घाट पहाड़ होते घनघोर जंगल... आपको रास्ते मे शुगर मिल,भोरमदेव का मंदिर, भोरमदेव अभ्यारञ्य और चिल्फ़ी घाटी के खूबसूरत नजारे देखने मिलेंगे.  यह वही चिल्फ़ी घाटी है जहां सर्दी मे बर्फ़ जमने की खबर अखबारो मे मिलती रहती है. यह वही घाटी है जो छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक प्राकृतिक सीमा व प्रवेशद्वार है.... चिल्फ़ी घाटी से गुजरते हुये ऐसा लगता है जैसे हम फ़ुलो की घाटी मे आ गये हैं चिल्फ़ी को छत्तीसगढ़ के हिल स्टेशन के रुप मे विकसित किया जा सकता है जिसके एक ओर है खूबसूरत घाटी के साथ तराई क्षेत्र मे धार्मिक ऐतिहासिक महत्व की  भोरमदेव का मंदिर और दूसरी ओर है प्राकृतिक जैव विविधता से भरी सूपखार का घनघोर जंगल...कान्हा नेशनल पार्क के अंतर्गत ही सूपखार का जंगल  ऐसा कोर एरिया है जहाँ आप अपने वाहन से जा सकते  हैं. यहाँ पर सडक किनारे ही हिरण सियार मोर और गौर जैसे जंगली जीव  नजर आने लगते हैं. जंगल तो जंगल है आपकी किस्मत अच्छी रही तो बाघ 🐯 भी नजर आ सकते हैं. यहाँ प्रवेश करते समय बेरियर पर जंगल के कुछ नियम बताये गये हैं . वाहन से नीचे उतरना,हार्न बजाना,शोर करना तेज गति से वाहन चलाना सख्त मना है. सूपखार के जंगल मे बाघो के साथ लोगो के इनकाउन्टर के किस्से आम बात रही है... इसके रोमांच से ब्रिटेन के सम्राट भी आकर्षित हो चुके हैं जिनके लिए यहाँ निर्मित रेस्ट हाउस का वर्णन हम पहले कर चुके हैं. यहाँ अपने वाहन पर बैठे बैठे ही हमने इस रेस्ट हाउस का चित्र लिया और आगे गढ़ी की ओर बढ़ चले .

                                सांभर

      रास्ते मे गढ़ी के आस पास  आकर्षक मिट्टी खपरैल के  घर वाले गोन्डो की बस्ती मन मोह लेते हैं.कन्हार मिट्टी के पार से घिरे छोटे छोटे इनके खेतो की मिट्टी इतनी काली है कि जैसे लगता है कोई कोयले का बुरादा छिडक गया हो.  गोन्ड भारत की सबसे बड़ी आबादी वाली जनजाति है. इनका मध्य भारत मे अपना राजतन्त्र और समृद्ध वैभवपूर्ण इतिहास रहा  है . रानी दुर्गावती की प्रतिमा रास्ते मे आपको उसी साहस और अभिमान से खडी मिल जायेगी जैसे वह अकबर की सेना के विरूद्ध खडी हुयी थी. उनका अभिमान, राजशी अंदाज और स्वतन्त्रता प्रेम का प्रतिबिम्ब आप इस क्षेत्र के बाघो मे महसूस कर सकते हैं.
       इस क्षेत्र में आपको बैगा आदिवासी भी नजर आ जाएंगे. उनकी विशेष वेशभूषा से उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है. महिलाये गुदना (टेटु) व पुरुष लम्बे बालो की वजह से भीड मे भी अलग दिखते हैं.भारत की सबसे बड़ी आबादी वाली जनजाति गोन्ड और विशेष पिछ्डी जनजाति मे शामिल बैगा यहाँ के बाघो की तरह असली मूल निवासी हैं.
         एक ब्रिटिश वेरियर एल्विन द्वारा इन दोनो आदिवासी समुदाय के बीच कई वर्ष रहकर सहभागी अवलोकन किया गया. यह अपने आप मे अनोखा अध्ययन था जिसने पूरी दुनिया को यहाँ के मूल निवासी गोन्ड और बैगा के रहस्यो से भरे रीति रिवाज रहन सहन से पहला परिचय कराया.
            वेरियर एल्विन भी इनके प्राकृतिक सादगी पूर्ण जीवन इतने प्रभावित हुये कि उनसे पूर्ण घुल मिल गये व स्वय आदिवासी कहे जाने लगे.  इस क्षेत्र में किये गये उनके अध्ययन से प्रभावित होकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने उन्हे जनजाति मामलो का सलाहकार नियुक्त किया था.  कान्हा के जन्गलो से घिरा यह मध्य भारत की वही कर्मभूमि है जहां वेरियर के अनुभव और अध्ययन के आधार पर पूरे देश के आदिवासियों के लिये भारत सरकार द्वारा नीति बनायी गयी. बाद मे वेरियर एल्विन को उनके योगदान के लिये जनजातियो से जुडे संगठनो मे महत्वपूर्ण शासकीय पद दिये गये.
       दरअसल यह गोन्ड, बैगा, बाघ और बारहसिंगा की भूमि है इसलिए सबका जिक्र आवश्यक है . इस जंगल, जीव जंतु विशेषकर बाघ के लिए सबसे ज्यादा त्याग और बलिदान गोन्ड और बैगा जनजातियो ने ही किया है.



        कान्हा नेशनल पार्क में घनघोर जंगल, ऊन्ची घास के मैदान, साल के विशाल वृक्ष और बान्स के झुरमुट बाघो के लिये विशेष अनुकुल हैं.  बाघ की उपस्थिति का मतलब है स्वस्थ जंगल जो आहार श्रृखला को पूर्ण करती है. सुबह सुबह पार्क मे प्रवेश करते ही सियार का परिवार, बन्दरो का दल, हिरणो का झुंड आस पास आसानी से नजर आने लगते हैं. बीच बीच मे मोर, जन्गली मुर्गा, कठफोड़वा, सर्पेन्ट ईगल, उल्लू सहित रंग बिरंगे पक्षी नजर आते रहते हैं. कोयल, मोर, बार्किन्ग डीयर के साथ बन्दरो का कोलाहल जंगल को गुंजायमान रखते हैं. इनके बाद भी रास्तो मे बाघ के पदचिन्ह इस बात का एहसास कराते हैं कि आस पास ही कही बाघ है. उनका होना और दिखायी नही देना रोंगटे खड़े करने वाला रोमांच पैदा करता है. उन्चे घास और बान्स के झुरमुट बाघ की धारियो का भ्रम पैदा करते हैं.  ऐसा भी हो सकता है कि हम बाघ देख रहे हो और छद्मावरण के कारण पहचान न सके. चीतल, सांभर, गौर ( जन्गली भैसा समझने की भूल न करे) और जंगली सुअर बाघ के पसन्दीदा शिकार है जो यहाँ विचरण करते आसानी से देखे जा सकते हैं.  सफ़ारी के इन्टर्वेल मे कान्हा का म्युजियम देखना न भूले. यह जंगली जीवों और पर्यावरण को समझने के लिए बहुत उपयोगी है साथ ही कान्हा की एक डाक्युमेन्ट्री भी दिखाता है.




      कान्हा मे मुझे बाघो के साथ एक और जीव को देखने की चाह थी और वह है हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा जो पूरी दुनिया मे अब केवल कान्हा के जन्गलो मे ही दिखायी देती है. यह भारत की सबसे सुन्दर हिरण प्रजाति मानी जाती है.




       हम जब सफ़ारी के अंतिम चरण मे थे तब दुसरे जिप्सी वालो की सूचना पर कि पास ही तेन्दुआ दिखाई दिया है हम उसी ओर हो लिये हमे यहाँ बाघ या तेन्दुआ तो दिखाई नही दिया लेकिन संयोग से हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा से मुलाकात हो गयी. यह हमारे लिये अद्भुत क्षण था..... आज भारतीय जंगलो से चीता विलुप्त हो चुके हैं और एक समय 1970 मे हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा भी मात्र 66 की संख्या में बचे थे. पार्क के बेहतर प्रबंधन से आज इनकी संख्या 600 से ज्यादा हो चुकी है .



               पार्क के भीतर हमे श्रवण ताल भी दिखाया गया जो अपने नाम के अनुरूप रामायण के राजा दशरथ और श्रवण के प्रसंग से जुड़ा है.  यहाँ के जन्गलो से जुडे अनेक कहानियाँ है जो अधिकांश बाघ, शिकार और शिकारियो से जुड़े हैं.
        कान्हा नेशनल पार्क के मध्य से होकर बन्जर और हालोन नदी गुजरी हैं जो ख़ूबसूरत घाटी का निर्माण करती हैं साथ ही यहाँ के पर्यावरण के लिए बहुत उपयोगी है. बन्जर नदी के नाम से ही शुरू मे बन्जर अभ्यारञ्य था जो 1955 मे कान्हा राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया .यहाँ 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर चलाया जा रहा है. अब यहाँ बाघो की संख्या 1976 के 45 से अब 100 से अधिक पहुंच गयी है.
        ईद मुबारक.... शुभ रात्रि.
   

बुधवार, 7 जून 2017

14 सितम्बर.... हिन्दी दिवस.... हिन्दी भाषा का इतिहास

14 सितंबर हिंदी दिवस💐,,,,
          मैं यह नहीं कहूंगा कि हिंदी ही पढ़ना और बोलना चाहिए, हिंदी अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ है या हिंदी पर हमें गर्व है....बल्कि आज यह जानना अधिक आवश्यक है कि हिंदी क्या है और क्यों है?
       भाषा का इतिहास अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को जानने का सबसे बेहतर और सरल माध्यम है । इसका इतिहास बहुत रोचक है और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि पुरातात्विक इतिहास। बस जानने और समझने का दृष्टिकोण थोड़ा अलग है।
      प्राचीन भारत की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यता सिंधु सभ्यता है। इस सभ्यता की जानकारी का स्रोत पुरातात्विक है। कार्बन डेटिंग के आधार पर इसका काल निर्धारण 1750 ई पू से पहले का माना गया है। यहाँ के सुनियोजित नगर नियोजन से पता चलता है कि यह सभ्यता कितनी उन्नत थी और इतनी विकसित सभ्यता की भाषा व् लिपि जरूर रही होगी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लाहौर मुल्तान रेलवे ट्रेक के निर्माण के समय वहां के बड़े बड़े टीलों से निकलने वाली ईंटों का प्रयोग ट्रेक की नींव बनाने में अज्ञानता वश बेतरतीब किया गया । चार से पांच हजार वर्ष पुरानी इन  ईंटों को हवा पानी मौसम व् समय की मार वैसे ही डिकोड नहीं कर पायी है जैसे वहां की प्राप्त भाषा और चित्रात्मक लिपि को सारे विद्वान डिकोड नहीं कर पाए हैं। आज तक सिंधु सभ्यता की भाषा और लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है।
      अब यह निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि सिंधु सभ्यता संस्कृत भाषा(आर्य भाषा परिवार) वाली वैदिक सभ्यता से अलग थी।
       आर्य भाषा परिवार के शब्द माता पिता सहित कई शब्द के उच्चारण बहुत ही रोचक तरीके से एक सामान हैं । इसी आधार पर इन्हें एक भाषा परिवार माना गया है। आर्यों के मध्य एशिया होते हुए प्रवास का एक महवपूर्ण प्रमाण हित्ती साम्राज्य की राजधानी (अभी टर्की में) बोगाजकोई के अभिलेख से होता है यहाँ के अवशेषों में सिंह द्वार मिले हैं तथा अभिलेखों (1400 बी सी ) में दो राजाओं के मध्य संधि के लिए इंद्र मित्र नासत्य वरुण देवताओं का साक्षी के रूप में उल्लेख है जो कि वैदिक साहित्यों में उल्लिखित देवता हैं । स्पष्ट है कि 1400 बी सी में आर्य यहाँ थे।
          आर्यों के प्रवास में पश्चिम की ओर ग्रीक लैटिन व् अंग्रेजी का विकास हुआ तथा पूर्व की ओर प्रवास में एक शाखा ईरानी फारशी भाषा और दूसरी शाखा भारत में संस्कृत के रूप में विकसित हुआ ।संस्कृत  आर्य भाषा परिवार से थी तथा आर्यों के साथ आयी थी और बहुत ही परिष्कृत तथा परिमार्जित भाषा थी।
      वैदिक काल को दो भागों में बांटा गया है पहला ऋग्वैदिक काल( 1500 से 1000 बी सी ) दूसरी उत्तरवैदिक काल (1000 से 600 बी सी)। लगभग 1000 बी सी में लोहे का ज्ञान आर्यों को हुआ था इसे उत्तरवैदिक काल में अयस कहा गया है जिसका ज्ञान ऋग्वेद के समय आर्यों को नहीं था।
      संस्कृत बहुत अधिक व्याकरणी थी इसलिए आमलोग बिना शिक्षा दीक्षा लिए इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे । इसी कारण इसके बिगड़े स्वरुप व्  देशी भाषा के मेल से प्राचीन प्राकृत तथा पाली का जन्म हुआ जो संस्कृत से सरल थे साधारण जन में लोकप्रिय हो गए।  बुद्ध तथा महावीर के समय भाषाई आधार पर संस्कृत उच्च वर्गों ब्राह्मणों की कर्मकांडीय और उच्चतावादी दृष्टिकोण से बंध गयी । इसी उच्चतावादी दृष्टि कोण पर कुठाराघात करते हुए बुद्ध ने पाली में तथा महावीर ने प्राकृत में अपने समतावादी दृष्टिकोण का प्रचार किया जो तब लोकभाषा थी।
          वैदिक काल में भाषा की लिपि प्रचलित होने के प्रमाण नहीं मिले हैं । इनका संरक्षण श्रुति के आधार पर( गुरु शिष्य परंपरा में श्रवण) संभव हो पाया । वैदिक काल 600 बी सी के पश्चात् तथा सम्राट अशोक के पहले ब्राम्ही लिपि के उपयोग का प्रमाण  मिला है  .भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही सभी भारतीय लिपियों का विकास ब्राम्ही लिपि से ही हुआ है । जो कि भारत में अनेकता में एकता को पुनः प्रमाणित करती है। ब्राम्ही लिपि से ही 1000 ईस्वी में देवनागरी लिपि का विकास हुआ है जो की हिंदी भाषा के लेखन हेतु प्रयुक्त होती है। इस् प्रकार देवनागरी, बंगला, गुरुमुखी, गुजरती, ओड़िया सहित दक्षिण के लिपियों का विकास भी ब्राम्ही लिपि से हुआ जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोती है। इसी तरह भारत के अधिकांश भाषा का विकास आर्य भाषा परिवार से हुआ है।
       संस्कृत से प्राकृत और पाली के बाद अपभ्रंश का विकास हुआ जिसमे पुनः देशी बोली व् फारशी अरबी  विदेशी प्रभाव से 1000 ईस्वी में हिंदी का परिपक्व स्वरुप सामने आया। यह भारत के ऐतिहासिक सांस्कृतिक विकास की धरोहर है तथा अनेकता में एकता का सबसे अच्छा उदाहरण है।

 वास्तव में हिंदी में संस्कृत की तरह रूढ़ियाँ नहीं है यह भारतीय संस्कृति के विकास के अनुरूप लचीला है। वर्तमान में यह अरबी फारशी के व्यापक प्रयोग वाली उर्दू से समन्वित हो चुका है तथा विदेशी भाषा अंग्रेजी पुर्तगाली के शब्दों को भी अपने सांचे में ढालकर उन्हें अपना बना चुका है । हिंदी का शब्दकोष सर्वाधिक ढाई लाख शब्दों का है जहाँ अंग्रेजी शब्दकोष में महज 10 हजार शब्द हैं। अन्य भाषा की तुलना में हिंदी अधिक परिष्कृत और वैज्ञानिक है जो की त्रुटि रहित है । प्रत्येक ध्वनि का लेखन व् उच्चारण वास्तविक रूप में केवल हिंदी भाषा में किया जा सकता है।
                                                                       भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम है।यह एक कला तकनीक है साधन है जिससे संचार किया जा सकता है। यह संस्कृति एवं सभ्यता का मुख्य घटक है। अंग्रेजों ने भौगोलिक वैज्ञानिक         खोज ,उपनिवेशवाद, विजय तथा सृजन से अंग्रेजी को एक अंतराष्ट्रीय लिंक भाषा बना दिया है अतः उसका ज्ञान काल व् परिस्थिति के कारण अपरिहार्य हो गया है। अंग्रेजी के ज्ञान को कौशल विकास,तकनिकी कुशलता  व् ज्ञान अर्जन के रूप देखना चाहिए । अंग्रेजी का इस्तेमाल करना वैसा ही है जैसे इटली में जाकर इडली के स्थान पर पास्ता खाना।
     अंग्रेजी जान लेने का यह अर्थ कतइ नहीं है कि हम हिंदी भूल जाएंगे । दरअसल हिंदी में भारतीयता बसी है वह हमारी सांस्कृतिक ऐतिहासिक विकासक्रम  की धरोहर है। भारत के विकास के साथ ही हिंदी का भी विकास जुड़ा हुआ है। जैसे जैसे भारत विश्व में प्रभुत्वशाली होगा हिंदी भी विश्व की जरूरत बनेगी।

 जय हिंद हिंदी हिंदुस्तान ।

 हिंदी दिवस की पुनः बधाई

कानन पेन्डारी बिलासपुर..... चिड़ीयाघर.... मिनी जू...

कानन पेंडारी bilaspur
        इस चिड़ियाघर की शुरुआत एक नर्सरी के रूप में की गयी थी । बाद में यहाँ जंगल के भटके व् घायल जानवर के रहवास के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा । मनोरंजन के साथ साथ लोगों को जंगली जीव से परिचित कराने के लिए इसे चिड़ियाघर के रूप में विकसित किया गया है। यह  जंगली जीवों की रक्षा , प्रजनन केंद्र तथा प्रशिक्षण हेतु उपयोगी है।
       यहाँ देखने के लिए बहुत से जानवर हैं लेकिन इनकी स्थिति दयनीय नजर आती है । विशेषकर रिशस बन्दर जिसे बहुत छोटे पिंजरे में बंद रखा गया है। बच्चे जानवर देख कर खुश तो हुए लेकिन उनके भी मन में कुछ प्रश्न जागृत हो गए....जब इतने सारे बन्दर बाहर घूम रहे हैं तो केवल दो बंदरों को पिंजड़े में क्यों रखा गया है ?
     नन्हा  सफ़ेद बाघ बहुत रोमांचित करता है। इसका नाम आकाश है यह बाघिन सिद्धि का शावक है लेकिन इसकी केज के बाहर अभी भी आशा बाघिन का नाम लिखा हुआ है। तेंदुआं  बाघ और सिंह के  केज के समक्ष जानकारी  के साथ उनका नाम लिखे जाने से समझने में बहुत सुविधा होगी और हाँ जू के अन्दर खाद्य सामग्री के लिये  प्लास्टिक का  उपयोग चिंताजनक है....


















मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

अमरकंटक के समीप.... कबीर चबुतरा..... कबीर दर्शन...

छत्तीसगढ़ की सीमा में अमरकंटक के ठीक पहले कबीर चबूतरा है । इस स्थल का महत्त्व आज भुला दिया गया है। अमरकंटक की वादियों का यह स्थल प्राकृतिक,आध्यात्मिक के साथ साथ ऐतिहासिक महत्त्व का भी है।
   इस स्थान के बारे में बताया जाता है कि   संत कबीर ने इस स्थान पर गुरुनानक से संवाद किया था। यहाँ एक कुटिया जिसमे कबीर के प्रतिक चक्की,पुराने सामान चूल्हे वगैरह रखे हुए हैं,दूधिया पानी का सोता है जो छोटा सा झरना भी बनाता है,बरगद का बहुत पुराना विशाल वृक्ष जिसके छाया में संतों की तप की अनुभूति होती है।  भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना का प्रतिक यह स्थल उतनी ही उपेक्षित है जितनी कि संत कबीर की शिक्षाएं।
     कबीरदास जी संत तो थे ही लेकिन आज इक्कीसवीं सदी के परिप्रेक्ष्य में कुरीतियों को चोट करने वाले वैज्ञानिक सोच केे समाज सुधारक थे  सही मायने में संत कबीर आज से 500 वर्षों पहले आधुनिक वैज्ञानिक सोच वाले  महान दार्शनिक शिक्षक थे। उनकी शिक्षाएं या सन्देश बहुत ही सहज सरल लोकप्रिय सधुक्कड़ी अंदाज में सुग्राह्य किन्तु अन्धविश्वास पर तीव्र प्रहार करने वाले थे।
    यह विश्वास करना बहुत कठिन है कि सन्त कबीर पढ़े लिखे नहीं थे । यहाँ कॉपरनिकस को न्यूटन तो आइंस्टीन को रामानुजन चुनौती देते दिखायी देते हैं विज्ञान के सिद्धान्त भी नए शोध के साथ बदल रहे हैं । लेकिन संत कबीर के दृष्टान्त सभी काल में सार्वभौमिक हैं। उनकी शिक्षाये आज भी प्रासंगिक हैं जितनी तब थी जब संत कबीर थे।
      उन्होंने सहज कविता के माध्यम से  साम्प्रदायिकता आडम्बर जात पात जैसी कुरीतियों पर तीखा प्रहार किया है। फ़्रांस की क्रांति का सूत्र ' स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व ' से कहीं पहले उन्होंने इस वाक्य के फलसफे का प्रवर्तन कर दिया था। संत कबीर को भक्तिकाल के कवि के रूप में आज सीमित कर दिया गया है । हम अपनों की बात ही नहीं समझ पाये जो हमारी ही लोकभाषा और बोली में थी और जब विदेशियों ने इसे अंग्रेजी में एजुकेशन सोशल जस्टिस कहा तब इसे हम कोई  आधुनिक विद्या मानकर समझने लगे। अपने सधुक्कड़ी का हम वैसे ही सम्मान नहीं कर रहे हैं उसे पुरातन मानते है जबकि वह अंग्रेजी विद्या से कहीं अधिक वैज्ञानिक आधुनिक सार्वभौमिक है वह सार दर्शन, प्राकृतिक जीवन,योग,वैज्ञानिक शोध,वैदिक गणित से परिपूर्ण है। दरअसल हम भारतीय संस्कृति को हिंदुत्व के चश्मे से देखते हैं और हमारे अतीत के ज्ञान को कट्टरता का ढिंढोरा पिट कर दबा देते हैं। खैर थोड़ा विषयांतर हो गया ।
     साम्प्रदायिकता के इस अंधकार को दूर करने के लिए आज फिर कबीर की वाणी ही प्रासंगिक है । लेकिन उन्हें भी एक पंथ विशेष में बांध दिया गया है। जाति पांति के प्रबल विरोधी कबीरदास जी को मानने वाले आज कुछ जाति विशेष में ही सीमित हैं यह बड़ी विडम्बना है।
उनकी वाणी आज वैसे ही उपेक्षित है जैसे यह स्थान । अमरकंटक आने वाले बहुत कम यात्री  यहाँ आते हैं । यहाँ न तो जनता का ध्यान है न ही सरकार का । मेरा उद्देश्य इस कबीर चबूतरा को सब माने ऐसा नहीं है । दरअसल संत कबीर को लोग माने उससे कहीं अधिक यह आवश्यक है कि लोग उन्हें जानें।
  कल कबीर जयंती थी सभी को शुभकामनायें एवम् बधाई।
# फ़ेसबुक पर कबीर जयन्ती के अवसर पर लिखा गया मेरा पोस्ट... 

रविवार, 22 जनवरी 2017

गोवा की यात्रा


      गोवा की यात्रा 1961 में गोवा के भारत में विलय के कुछ वर्ष बाद 1970 के आस पास विदेशी सैलानी बहुतायत में गोवा आने लगे। ये ज्यादातर स्वछंद जीवनयापन करने वाले यायावर "हिप्पी" होते थे।यहाँ हिप्पियों का उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि गोवा को अंतरष्ट्रीय पर्यटन के नक़्शे में उभारने का कार्य उन्होंने ने ही किया था। भारतीय पर्यटन पूर्णतः धर्म आधारित है । यहाँ लोगों की यात्रा चारों धाम जैसे धार्मिक स्थलों के आधार पर तय होते हैं । कुछ अंग्रेजों की पसंद के हिल स्टेशन को छोड़कर भारत में गोवा जैसे पर्यटन स्थल बहुत कम हैं जहाँ लोगों के यात्रा का कारण धार्मिक नहीं होता।


कोन्डोलीम समुद्र तट 


        अमेरिका यूरोप से मध्य एशिया अफगानिस्तान से होते बड़ी संख्या में हिप्पियों की टोली भारत में प्रवेश की जिनका पहला पसंदीदा स्थान हिमालय की तराई विशेषकर नेपाल रहा और दूसरी पसंद की जगह थी गोवा...
     
 मेरी इस चित्र मे पीछे सिन्धु दुर्ग है.
 हिप्पी जब भारत आये तो अपने साथ लाये अपना अनूठा संगीत, संगत, फैशन, आजादी, फक्कड़ता। हिप्पी अमेरिका से चले यूरोप  मध्य एशिया होते भारत पहुचे। दरअसल वो ऐसे यात्री थे जिनकी मंजिल ही यात्रा थी। लेकिन भारत आकर हिप्पी थम गए ! यहाँ उनका परिचय हुआ असली फक्कड़ता से जिसमे सधुक्कड़ी थी, स्वतंत्रता थी, संगीत भी था, संगत भी और  हाँ लक्ष्य भी था अध्यात्म का।
         जी आपने सही समझा उन्हें स्वयं से परिष्कृत सन्यास का रास्ता मिला भारतीय साधुओं से। गले में रुद्राक्ष, शीष पर जटा, गेरुआ वस्त्र और संगीत में हरे रामा हरे कृष्ण का फैशन भा गया। हिप्पी सन्यास के रास्ते पर जरूर पहुचे लेकिन बिना अध्यात्म के , बिना गुरु शिष्य परंपरा के, बिना आश्रम के, बिना भाव के पथ विहीन हो गए और भारत में सामानांतर उप संस्कृति का निर्माण किया जो आज इतिहास बन चूका है और जिनके  अवशेष मात्र गोवा में नजर आते हैं ।
        इतिहास से याद आया प्राचीन इतिहास में  गोवा का उल्लेख  ग्रंथों में गो भूमि, गोपराष्ट्र के रूप में किया है। मध्यकाल में  विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम का इस् क्षेत्र में कब्ज़ा था । विजयनगर के बाद बीजापुर के आदिलशाहियों ने इस क्षेत्र पर अधिकार किया । गोवा पर 1510 ईस्वी में पुर्तगालियों के अधिकार के बाद इस क्षेत्र की तस्वीर बदल गयी । अंग्रेजों ने जहाँ कलकत्ता को अपना प्रशासनिक केंद्र बनाया वहीँ उनके प्रतिद्वंदी पुर्तगालियों ने गोवा को अपने  पूर्वी क्षेत्र के उपनिवेशों के लिए राजधानी के रूप में विकसित किया।
     यह बहुत दिलचस्प है कि यूरोप वासियों के लिए एक पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने ही भारत की खोज की लेकिन उनसे 100 साल बाद भारत पहुँचने वाले अंग्रेजों ने लगभग पूरे भारत पर अधिकार कर लिया।
        हम आधुनिक भारतीय इतिहास में केवल  1962,1965,1971और कारगिल 1999 के चार युद्ध को ही पढ़ते हैं । एक प्रमुख युद्ध से हम आश्चर्य जनक रूप से  न जाने क्यूँ अनजान हैं और वह है भारत-पुर्तगाल युद्ध जिसे 'ऑपरेशन विजय' नाम दिया गया था इसमें जल- थल-वायु तीनो सेना का इस्तेमाल किया गया था।   भारत पुर्तगाल युद्ध मात्र 2 दिवस में जीत लिया गया था लेकिन इसका अन्य युद्धों की तरह गौरव गान नहीं किया जाता । लेकिन इतिहास तो इतिहास है ।
             वैसे गोवा में पर्यटन का श्रेय पुर्तगालियों को भी है उनकी भव्य वास्तुकला , नियोजन प्रणाली व् संरचनात्मक विकास से गोवा को यूरोपीय शहर सा रंग मिलता है।  फिल्म एक दूजे के लिए , सागर, ख़ामोशी, कभी हाँ कभी ना, सिंघम  गोवा की अलग अलग खूबसूरती को आपको याद करा सकते हैं लेकिन गोवा में 'चापोरा फोर्ट' वागतर बीच के पास बहुत ही शानदार जगह है जहाँ फिल्म ' दिल चाहता है' के टाइटल सांग की शूटिंग हुयी है। इस फिल्म के बाद गोवा युवा वर्ग की पहली पसंदीदा  जगह बन गयी।  मैं फिल्म 'दिल चाहता है'  देखने के बाद से ही गोवा जाना चाहता था।
 अगोडा फ़ोर्ट     
     
 पहाड़ी पर  बना 'अगोडा फोर्ट' समुद्र किनारे लंगर डाले बड़े जहाज सा लगता है। यह पहले  पुर्तगाली जहाजों को राशन पानी आपूर्ति का केंद्र था । यह जगह बेहद दिलचस्प है यहाँ पुरातत्व विभाग द्वारा 15 अलग अलग गोवा के किले और भव्य इमारतों का वर्णन है जिससे गोवा की इतिहास एवं भूगोल की जानकारी मिलती है।








 कलन्गुट समुद्र तट  
         यहां मांडवी नदी के बैक वाटर बहुत खूबसूरत दृश्य बनाते हैं.  गोवा से नार्थ में दो घंटे की ड्राइव पर महाराष्ट्र में मालवण व् मराठों की अभेद्य सिंधुदुर्ग है जहाँ स्कूबा डाइविंग और वाटर स्पोर्ट की गतिविधियां होती है । ये बहुत ही रोमांचक होते है।  गोवा से साऊथ में दो घंटे की ड्राइव में कर्नाटक में प्रसिद्ध दूधसागर फाल है साथ में मसालों के फार्म का भी मजा यात्रा को डबल मजेदार बना देता है।।     गोवा में  डॉलफिन स्पॉट , लाइट हाउस,  गवर्नर हाउस, कैसिनो बोट क्रूज से देखने का मजा अदभुत है। एक और महत्वपूर्ण इवेंट है समुद्र के बीच में ब्लू वाटर स्विमिंग विथ लंच......👌
  
        गोवा भारत में विदेश का एहसास कराता है। इसे 'पर्ल ऑफ़ ईस्ट' या 'एशिया का लिस्बन' ऐसे ही नहीं कहा गया है।